शनिवार, 28 दिसंबर 2013

यदि आपको मोदी लहर नहीं दिखता तो निश्चित रूप से आप 'वामपंथी', 'सेक्‍यूलरवाद' से पीडि़त या 'प्रेस्‍टीट्यूट' हैं!

 यदि आप वामपंथी हैं, सेक्‍यूलरवाद की बीमारी से पीडि़त हैं या पेड मीडिया...सॉरी 'प्रेस्‍टीट्यूट' हैं तो आप मोदी लहर को नहीं देख पाएंगे, न ही उसकी आहट ही सुन पाएंगे और रही महसूस करने की बात तो अब तो नींद ही इसकी दे रही होगी कि आप रात-रात भर जग कर कुतर्कों का कूड़ा दिमाग में इकटठा करने के लिए कितने जतन कर रहे होंगे! मोदी यही तो चाहते हैं कि आप मतलब 'वामपंथी', 'सेक्‍यूलर डायरिया' के शिकार और मीडिया में बैठकर दल्‍लागिरी से आगे निकलकर वेश्‍यावृत्ति करने वाले 'प्रेस्‍टीटयूट' उन्‍हें कोसें! यही तो उनकी खुराक है, जो 2002 से लेते आ रहे हैं और मजबूत होते चले जा रहे हैं!

जो टेलीविजन चैनलों के एसी स्‍टूडियो में बैठकर आप नहीं समझे, वो देश की जनता कब की समझ गई है, अन्‍यथा पूरे देश में मतों का प्रतिशत एक समान ढंग से नहीं बढता! स्‍टूडियो में बैठकर 'चकल्‍लस' करने से पहले जरा आंकडों पर गौर कर लेते तो देखते कि जिन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हुए, उन्‍हें मिलाकर औसतन पांच फीसदी वोटों का इजाफा हुआ है। कुछ ऐसा था, जो एक समान पूरे देश के मतदाताओं को घर से निकलने के लिए बाध्‍य कर रहा था, खासकर नए मतदाताओं को। जरा पिछले कुछ महीनों के मोदी के भाषणों और टवीट को ही सर्च कर लेते, जिसमें वो लगातार युवाओं से अपना वोट बनवाने और अपना वोट देने की अपील कर रहे थे। हो सकता है, देखा भी होगा, लेकिन अहंकार के कारण उसकी चर्चा ही नहीं करना चाहते होंगे!
जनाब आप ये तो मानेंगे ही न कि पहली बार मोदी ने 'कांग्रेस मुक्‍त भारत' का नारा दिया और इन चार राज्‍यों के चुनाव ने दर्शा दिया कि देश अब उसी रास्‍ते पर बढ चला है। राजस्‍थान को उठा लीजिए...वहां अतीत की किसी भाजपा सरकार ने तीन चौथाई बहुमत का आंकडा नहीं छुआ था। भैरों सिंह शेखावत के जमाने में भी जब राजस्‍थान में भाजपा की सरकार बनी थी तो जोड तोड करने के बाद ही बनी थी। 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चल रही थी, लेकिन वसुंधरा राजे सिंधिया के नेतृत्‍व में भाजपा  राजस्‍थान में 115 के आसपास ही पहुंची थी और इस बार भी पोलिटिकल पंडितों का आकलन इससे या इससे थोडा ही आगे जाने का था।
महोदय क्‍या आपने कभी आकलन किया था कि कांग्रेस 200 विधानसभा वाले राज्‍य में सत्‍ता में रहते हुए केवल 21 सीटों पर सिमट जाएगी? 82 फीसदी सीटों पर उसका सफाया हो गया है, क्‍या यह कम बड़ी बात है? इन तीनों विचारधारा के लोग बेचारे अशोक गहलोत की इतनी बुरी हार को पचा ही नहीं पा रहे हैं। वे कहते हैं कि मैं मान ही नहीं सकता कि राजस्‍थान में कांग्रेस की लागू की गई सामाजिक योजना सही नहीं थी। फिर बेचारों को लगता है कि इस कुतर्क के लिए भाजपा समर्थन कहीं मोदी लहर न समझ जाएं तो मोदी फोबिया से ग्रस्‍त होकर वे कहते हैं कि यदि राजस्‍थान में मोदी लहर थी तो पूरे देश में क्‍यों नहीं थी, दिल्‍ली में अरविंद केजरीवाल के सामने वो बेअसर क्‍यों हो गई।
पहली बात तो यह कि जिसे वो अच्‍छी योजना बता रहे हैं वह आज की जनता की नजरों में 'खैरात' और 'भीख' बन गई है, जो उनके स्‍वभिमान पर चोट पहुंच रही है। मोदी अपने भाषणों में आम जनता के स्‍वाभिमान को ही तो जगा रहे हैं, जिससे कांग्रेस की खैराती योजनाएं फलॉप साबित हो रही हैं। गुजरात का अध्‍ययन कर लेते।  दूसरी, बात यदि मोदी लहर नहीं होती तो सच मानिए, अरविंद केजरीवाल की 'आम आदमी पार्टी' दिल्‍ली में 50 सीटों पर जीत जाती। आज जो हालत दिल्‍ली में कांग्रेस की हुई है, उससे थोडी ही ठीक भाजपा की होती, लेकिन वह भी 15 सीटों से ऊपर नहीं पहुंच सकती थी। याद रखिए, शीला और कांग्रेस के पूरे मंत्रीमंडल को अरविंद केजरीवाल की व उनकी पार्टी ने हराया है, भाजप ने नहीं। मोदी के कारण भाजपा अपने कोर वोटरों व और कुछ युवा वोटरों को अपनी ओर लाने में कामयाब रही है, जो पिछले 15 साल में दिल्‍ली में उससे दूर जा चुकी थी या फिर मतदान के प्रति उदासीन हो चुकी थी।
'मोदी इफेक्‍ट' दिल्‍ली भाजपा के संगठन से लेकर जनता तक में दिखा। यह 'मोदी इफेक्‍ट' ही था, जिसके कारण विजय गोयल को हटाकर डॉ हर्षवर्धन को मुख्‍यमंत्री का उम्‍मीदवार घोषित किया गया था। मोदी ने स्‍पष्‍ट कह दिया था कि विजय गोयल के पोस्‍टर पर मेरी तस्‍वीर नहीं रहेगी। संकेत साफ था। और हां..आप डॉ हर्षवर्धन को लाने को अरविंद केजरीवाल इफेक्‍ट मत कह दीजिएगा क्‍योंकि डॉ हर्षवर्धन का नाम पिछले साल भी मुख्‍यमंत्री की रेस में सबसे आगे था, लेकिन पार्टी की गुटबाजी के कारण विजय कुमार मल्‍होत्रा को आगे करना पडा था और यही गुटबाजी इस बार भी थी। हर कोई जानता है कि विजय गोयल भाजपा अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह के करीब थे और राजनाथ सिंह कभी उन्‍हें हटाना नहीं चाहते थे। वो बिना चेहरे के चुनाव मैदान में उतरने तक को तैयार हो गए थे। आज यदि राजनाथ सिंह की चलती तो कांग्रेस की तरह भाजपा का भी 'आप' की लहर में सफाया हो गया होता।
दूसरी बात, अरविंद केजरीवाल व उनकी आम आदमी पार्टी ने मोदी लहर को नजदीक से समझ लिया था। उनकी पार्टी की ओर से स्‍पष्‍ट निर्देश दिया गया था कि पार्टी का कोई कार्यकर्ता मोदी को गाली न दे, इससे खुद के चुनाव पर असर पड़ेगा। यही नहीं, सर्वे के उस्‍ताद योगेंद्र यादव ने सर्वेक्षण का नया दांव चला था, जिसमें यह दर्शाया गया कि उनकी पार्टी के समर्थकों में से ही 50 फीसदी लोग मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं और अरविंद को मुख्‍यमंत्री। अब इस सर्वे की चाल के कारण उन्‍होंने मोदी के कारण जो मत दिल्‍ली भाजपा को पड़ना था, उसे रोक कर अपनी ओर मोड़ने में सफलहा हासिल कर ली। उपरोक्‍त तीनों विचारधारा के लोग इस सर्वे जारी करने को 'आप' की ईमानदारी बताते रहे और मोदी समर्थक इसे लेकर खुश होते रहे, लेकिन इसके जरिए अरविंद ने जो वार किया, वह विधानसभा में भाजपा को मत देने वाले मतदाताओं की कुछ संख्‍या को रोकने में सफल रहा।
इसे समझाने के लिए एक आम आदमी का ही आकलने आपके सामने देता हूं। एक फेसबुकयूजर जितेंद्र ने अपने वॉल पर लिखा है, 'आप' की जीत का सबसे बड़ा राज ये है की इन्‍होंने नरेंद्र मोदी पर हमला नही किया, बल्कि स्‍थानीय मुद्दों को लोगों के बीच उठाया।  'आप' के जिन लोगों ने मोदी को कोसा वो हारे, जैसे कि शाजिया इल्मी और गोपाल राय। ये दोनों हर बात में नरेंद्र मोदी को कोसते थे। चुनाव से कुछ समय पहले केजरीवाल और आप पार्टी के ट्विटर एकाउंट पर ट्विट करके 'आप' के समर्थको से अपील किया गया था की वो नरेंद्र मोदी के बारे में कुछ गलत न बोलें। इतना ही नही बल्कि दिल्ली में कई जगह "आम आदमी पार्टी" ने बैनर लगाया था की "मोदी फॉर पीएम .. केजरीवाल फॉर सीएम"। अब भी मत समझिएगा, क्‍योंकि 'झूठ की खेत' में ही तो वामपंथी, सूडो सेक्‍यूलरवादी और दल्‍ली मीडिया की पौध पनपती।  
अब आइए मध्‍यप्रदेश। यहां आप लोग नरेंद्र मोदी बनाम शिवराज सिंह चौहान का मुदृा उठाकर 'खिसियानी बिल्‍ली खंभा नोचे' की तरह अपनी गत बना रहे हैं। शिवराज सिंह के अच्‍छे प्रशासन के कारण उन्‍हें बहुमत और उससे अधिक सीटें मिली है, लेकिन उसके आगे जो आज दो तिहाई बहुमत आप देख रहे हैं वह मोदी लहर का ही असर है। वर्ना 10 साल सत्‍ता में रहते हुए और कई मंत्रियों पर भ्रष्‍टाचार के आरोप और कुछ हद तक सत्‍ता विरोधी लहर की संभावना के बावजूद दो तिहाई बहुमत तक पहुंचना क्‍या कम लगता है आप लोगों को। और महोदय यह भी बता दूं कि मध्‍यप्रदेश में नरेंद्र मोदी ने साढ़े तीन दिन में 14 सभाएं की थी और जहां-जहां सभा की थी, उन सभी स्‍थानों पर भाजपा ने जीत हासिल कर ली है। बीबीसी के एक विश्‍लेषक ने लिखा भी है कि मध्‍यप्रदेश में यदि जित का श्रेय 75 फीसदी शिवराज को जाता है तो 25 फीसदी मोदी लहर को।
अब आइए छत्‍तीसगढ़। छत्‍तीसगढ़ में जिस तरह से नक्‍सलियों ने स्‍थानीय कांग्रेस नेतृत्‍व का पूरी तरह से सफाया कर दिया, उसका असर बस्‍तर इलाके में कांग्रेस के पक्ष में पड़े सहानुभूति मतों में झलकता है। कांग्रेस के पक्ष में इस सहानुभूति लहर के कारण भाजपा का वहां से एक तरह से सफाया ही हो जाना था, लेकिन मैदानी इलाके ने इसे काउंटर कर दिया और छत्‍तीसगढ़ में भाजपा की सत्‍ता बच गई। 10 साल के शासन के बावजूद डॉ रमन सिंह सरकार ने पिछली बार के 50 की जगह इस बार 49 सीटें लाई, लेकिन मोदी लहर ने सत्‍ता बचा लिया।  
जानता हूं, मोदी फोबिया के कारण आपलोग 'सो' और 'सोच' दोनों नहीं पा रहे होंगे। तो आपको थोड़ा और परेशान कर बता दूं कि 589 सीटों पर हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में 408 सीटें गई है। इसे यदि लोकसभा सीटों में बदलें तो करीब 72 लोकसभा सीटों में से 65 पर भाजपा जीती है। भाजपा के इतिहास में कभी ऐसा प्रदर्शन हुआ था क्‍या। अब 2003 का 'वीत राग' मत छेडि़एगा। उस वक्‍त भाजपा दिल्‍ली में नहीं आई थी और न ही उसकी इतनी सीटें ही दिल्‍ली में आई थी और हां, राजस्‍थान व मध्‍यप्रदेश में भी इतनी सीटें नहीं आई थी जबकि उस समय केंद्र में भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार थी।
बीबीसी लिखता है, यह आश्‍चर्य की बात है कि राजस्थान में अशोक गहलोत और दिल्‍ली में शीला दीक्षित की सरकार को सत्ता विरोधी जिस लहर ने डुबोया, वह मध्य प्रदेश में तो बिल्कुल भी कारगर नहीं रही। उलटे शिवराज सिंह के समर्थन में सत्ता-समर्थक लहर ने भाजपा को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया।
मध्य प्रदेश में जहां मोदी का प्रचार भाजपा की जीत के अंतर और आंकड़े में इजाफा करने वाला तत्व साबित हुआ, वहीं छत्तीसगढ़ में इसने भाजपा को वह संबल दिया, जिसकी जरूरत कांग्रेस के आक्रामक अभियान तथा सत्ता-विरोधी माहौल से जूझने के लिए रमन सिंह को थी।
वामपंथी, सेक्‍यूलर डायरिया से पीडि़त और 'प्रेस्‍टीटयूट' महोदय, आपको तो 2014 तक मोदी विरोध का झंडा उठाने का ठेका मिला है! अभी से आप पस्‍त जो जाएंग तो आपका क्‍या होगा...तो लगे रहिए...ईश्‍वर आपके 'कुतर्क शास्‍त्र' में बढोत्‍तरी करे!

कैसे और क्‍यों बनाया अमेरिका ने अरविंद केजरीवाल को, पढि़ए पूरी कहानी!

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली एनजीओ गिरोह ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी)’ ने घोर सांप्रदायिक ‘सांप्रदायिक और लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम’ का ड्राफ्ट तैयार किया है। एनएसी की एक प्रमुख सदस्य अरुणा राय के साथ मिलकर अरविंद केजरीवाल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए एनजीओ की कार्यप्रणाली समझी और फिर ‘परिवर्तन’ नामक एनजीओ से जुड़ गए। अरविंद लंबे अरसे तक राजस्व विभाग से छुटटी लेकर भी सरकारी तनख्वाह ले रहे थे और एनजीओ से भी वेतन उठा रहे थे, जो ‘श्रीमान ईमानदार’ को कानूनन भ्रष्‍टाचारी की श्रेणी में रखता है। वर्ष 2006 में ‘परिवर्तन’ में काम करने के दौरान ही उन्हें अमेरिकी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ ने 'उभरते नेतृत्व' के लिए ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार दिया, जबकि उस वक्त तक अरविंद ने ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसे उभरते हुए नेतृत्व का प्रतीक माना जा सके।  इसके बाद अरविंद अपने पुराने सहयोगी मनीष सिसोदिया के एनजीओ ‘कबीर’ से जुड़ गए, जिसका गठन इन दोनों ने मिलकर वर्ष 2005 में किया था।  
अरविंद को समझने से पहले ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को समझ लीजिए!
अमेरिकी नीतियों को पूरी दुनिया में लागू कराने के लिए अमेरिकी खुफिया ब्यूरो  ‘सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए)’ अमेरिका की मशहूर कार निर्माता कंपनी ‘फोर्ड’ द्वारा संचालित ‘फोर्ड फाउंडेशन’ एवं कई अन्य फंडिंग एजेंसी के साथ मिलकर काम करती रही है। 1953 में फिलिपिंस की पूरी राजनीति व चुनाव को सीआईए ने अपने कब्जे में ले लिया था। भारतीय अरविंद केजरीवाल की ही तरह सीआईए ने उस वक्त फिलिपिंस में ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ को खड़ा किया था और उन्हें फिलिपिंस का राष्ट्रपति बनवा दिया था। अरविंद केजरीवाल की ही तरह ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ का भी पूर्व का कोई राजनैतिक इतिहास नहीं था। ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के जरिए फिलिपिंस की राजनीति को पूरी तरह से अपने कब्जे में करने के लिए अमेरिका ने उस जमाने में प्रचार के जरिए उनका राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ‘छवि निर्माण’ से लेकर उन्हें ‘नॉसियोनालिस्टा पार्टी’ का  उम्मीदवार बनाने और चुनाव जिताने के लिए करीब 5 मिलियन डॉलर खर्च किया था। तत्कालीन सीआईए प्रमुख एलन डॉउल्स की निगरानी में इस पूरी योजना को उस समय के सीआईए अधिकारी ‘एडवर्ड लैंडस्ले’ ने अंजाम दिया था। इसकी पुष्टि 1972 में एडवर्ड लैंडस्ले द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार में हुई।
ठीक अरविंद केजरीवाल की ही तरह रेमॉन मेग्सेसाय की ईमानदार छवि को गढ़ा गया और ‘डर्टी ट्रिक्स’ के जरिए विरोधी नेता और फिलिपिंस के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘क्वायरिनो’ की छवि धूमिल की गई। यह प्रचारित किया गया कि क्वायरिनो भाषण देने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ड्रग का उपयोग करते हैं। रेमॉन मेग्सेसाय की ‘गढ़ी गई ईमानदार छवि’ और क्वायरिनो की ‘कुप्रचारित पतित छवि’ ने रेमॉन मेग्सेसाय को दो तिहाई बहुमत से जीत दिला दी और अमेरिका अपने मकसद में कामयाब रहा था। भारत में इस समय अरविंद केजरीवाल बनाम अन्य राजनीतिज्ञों की बीच अंतर दर्शाने के लिए छवि गढ़ने का जो प्रचारित खेल चल रहा है वह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए द्वारा अपनाए गए तरीके और प्रचार से बहुत कुछ मेल खाता है।
उन्हीं ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ के नाम पर एशिया में अमेरिकी नीतियों के पक्ष में माहौल बनाने वालों, वॉलेंटियर तैयार करने वालों, अपने देश की नीतियों को अमेरिकी हित में प्रभावित करने वालों, भ्रष्‍टाचार के नाम पर देश की चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने वालों को ‘फोर्ड फाउंडेशन’ व ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ मिलकर अप्रैल 1957 से ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ अवार्ड प्रदान कर रही है। ‘आम आदमी पार्टी’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल और उनके साथी व ‘आम आदमी पार्टी’ के विधायक मनीष सिसोदिया को भी वही ‘रेमॉन मेग्सेसाय’ पुरस्कार मिला है और सीआईए के लिए फंडिंग करने वाली उसी ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड से उनका एनजीओ ‘कबीर’ और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ मूवमेंट खड़ा हुआ है। 

भारत में राजनैतिक अस्थिरता के लिए एनजीओ और मीडिया में विदेशी फंडिंग! 
‘फोर्ड फाउंडेशन’ के एक अधिकारी स्टीवन सॉलनिक के मुताबिक ‘‘कबीर को फोर्ड फाउंडेशन की ओर से वर्ष 2005 में 1 लाख 72 हजार डॉलर एवं वर्ष 2008 में 1 लाख 97 हजार अमेरिकी डॉलर का फंड दिया गया।’’ यही नहीं, ‘कबीर’ को ‘डच दूतावास’ से भी मोटी रकम फंड के रूप में मिली। अमेरिका के साथ मिलकर नीदरलैंड भी अपने दूतावासों के जरिए दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में अमेरिकी-यूरोपीय हस्तक्षेप बढ़ाने के लिए वहां की गैर सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ को जबरदस्त फंडिंग करती है।
अंग्रेजी अखबार ‘पॉयनियर’ में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक डच यानी नीदरलैंड दूतावास अपनी ही एक एनजीओ ‘हिवोस’ के जरिए नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार को अस्थिर करने में लगे विभिन्‍न भारतीय एनजीओ को अप्रैल 2008 से 2012 के बीच लगभग 13 लाख यूरो, मतलब करीब सवा नौ करोड़ रुपए की फंडिंग कर चुकी है।  इसमें एक अरविंद केजरीवाल का एनजीओ भी शामिल है। ‘हिवोस’ को फोर्ड फाउंडेशन भी फंडिंग करती है।
डच एनजीओ ‘हिवोस’  दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में केवल उन्हीं एनजीओ को फंडिंग करती है,जो अपने देश व वहां के राज्यों में अमेरिका व यूरोप के हित में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की क्षमता को साबित करते हैं।  इसके लिए मीडिया हाउस को भी जबरदस्त फंडिंग की जाती है। एशियाई देशों की मीडिया को फंडिंग करने के लिए अमेरिका व यूरोपीय देशों ने ‘पनोस’ नामक संस्था का गठन कर रखा है। दक्षिण एशिया में इस समय ‘पनोस’ के करीब आधा दर्जन कार्यालय काम कर रहे हैं। 'पनोस' में भी फोर्ड फाउंडेशन का पैसा आता है। माना जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल के मीडिया उभार के पीछे इसी ‘पनोस' के जरिए 'फोर्ड फाउंडेशन' की फंडिंग काम कर रही है। ‘सीएनएन-आईबीएन’ व ‘आईबीएन-7’ चैनल के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ‘पॉपुलेशन काउंसिल’ नामक संस्था के सदस्य हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की वही ‘रॉकफेलर ब्रदर्स’ करती है जो ‘रेमॉन मेग्सेसाय’  पुरस्कार के लिए ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के साथ मिलकर फंडिंग करती है।
माना जा रहा है कि ‘पनोस’ और ‘रॉकफेलर ब्रदर्स फंड’ की फंडिंग का ही यह कमाल है कि राजदीप सरदेसाई का अंग्रेजी चैनल ‘सीएनएन-आईबीएन’ व हिंदी चैनल ‘आईबीएन-7’ न केवल अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ने’ में सबसे आगे रहे हैं, बल्कि 21 दिसंबर 2013 को ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार भी उसे प्रदान किया है। ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ के पुरस्कार की प्रयोजक कंपनी ‘जीएमआर’ भ्रष्‍टाचार में में घिरी है।
‘जीएमआर’ के स्वामित्व वाली ‘डायल’ कंपनी ने देश की राजधानी दिल्ली में इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा विकसित करने के लिए यूपीए सरकार से महज 100 रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन हासिल किया है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ‘सीएजी’  ने 17 अगस्त 2012 को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जीएमआर को सस्ते दर पर दी गई जमीन के कारण सरकारी खजाने को 1 लाख 63 हजार करोड़ रुपए का चूना लगा है। इतना ही नहीं, रिश्वत देकर अवैध तरीके से ठेका हासिल करने के कारण ही मालदीव सरकार ने अपने देश में निर्मित हो रहे माले हवाई अड्डा का ठेका जीएमआर से छीन लिया था। सिंगापुर की अदालत ने जीएमआर कंपनी को भ्रष्‍टाचार में शामिल होने का दोषी करार दिया था। तात्पर्य यह है कि अमेरिकी-यूरोपीय फंड, भारतीय मीडिया और यहां यूपीए सरकार के साथ घोटाले में साझीदार कारपोरेट कंपनियों ने मिलकर अरविंद केजरीवाल को ‘गढ़ा’ है, जिसका मकसद आगे पढ़ने पर आपको पता चलेगा।
‘जनलोकपाल आंदोलन’ से ‘आम आदमी पार्टी’ तक का शातिर सफर!
आरोप है कि विदेशी पुरस्कार और फंडिंग हासिल करने के बाद अमेरिकी हित में अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया ने इस देश को अस्थिर करने के लिए ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का नारा देते हुए वर्ष 2011 में ‘जनलोकपाल आंदोलन’ की रूप रेखा खिंची।  इसके लिए सबसे पहले बाबा रामदेव का उपयोग किया गया, लेकिन रामदेव इन सभी की मंशाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ गए थे। स्वामी रामदेव के मना करने पर उनके मंच का उपयोग करते हुए महाराष्ट्र के सीधे-साधे, लेकिन भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध कई मुहीम में सफलता हासिल करने वाले अन्ना हजारे को अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली से उत्तर भारत में ‘लॉंच’ कर दिया।  अन्ना हजारे को अरिवंद केजरीवाल की मंशा समझने में काफी वक्त लगा, लेकिन तब तक जनलोकपाल आंदोलन के बहाने अरविंद ‘कांग्रेस पार्टी व विदेशी फंडेड मीडिया’ के जरिए देश में प्रमुख चेहरा बन चुके थे। जनलोकपाल आंदोलन के दौरान जो मीडिया अन्ना-अन्ना की गाथा गा रही थी, ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन के बाद वही मीडिया अन्ना को असफल साबित करने और अरविंद केजरीवाल के महिमा मंडन में जुट गई।
विदेशी फंडिंग तो अंदरूनी जानकारी है, लेकिन उस दौर से लेकर आज तक अरविंद केजरीवाल को प्रमोट करने वाली हर मीडिया संस्थान और पत्रकारों के चेहरे को गौर से देखिए। इनमें से अधिकांश वो हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के द्वारा अंजाम दिए गए 1 लाख 76 हजार करोड़ के 2जी स्पेक्ट्रम, 1 लाख 86 हजार करोड़ के कोल ब्लॉक आवंटन, 70 हजार करोड़ के कॉमनवेल्थ गेम्स और 'कैश फॉर वोट' घोटाले में समान रूप से भागीदार हैं।  
आगे बढ़ते हैं...! अन्ना जब अरविंद और मनीष सिसोदिया के पीछे की विदेशी फंडिंग और उनकी छुपी हुई मंशा से परिचित हुए तो वह अलग हो गए, लेकिन इसी अन्ना के कंधे पर पैर रखकर अरविंद अपनी ‘आम आदमी पार्टी’ खड़ा करने में सफल  रहे।  जनलोकपाल आंदोलन के पीछे ‘फोर्ड फाउंडेशन’ के फंड  को लेकर जब सवाल उठने लगा तो अरविंद-मनीष के आग्रह व न्यूयॉर्क स्थित अपने मुख्यालय के आदेश पर फोर्ड फाउंडेशन ने अपनी वेबसाइट से ‘कबीर’ व उसकी फंडिंग का पूरा ब्यौरा ही हटा दिया।  लेकिन उससे पहले अन्ना आंदोलन के दौरान 31 अगस्त 2011 में ही फोर्ड के प्रतिनिधि स्टीवेन सॉलनिक ने ‘बिजनस स्टैंडर’ अखबार में एक साक्षात्कार दिया था, जिसमें यह कबूल किया था कि फोर्ड फाउंडेशन ने ‘कबीर’ को दो बार में 3 लाख 69 हजार डॉलर की फंडिंग की है। स्टीवेन सॉलनिक के इस साक्षात्कार के कारण यह मामला पूरी तरह से दबने से बच गया और अरविंद का चेहरा कम संख्या में ही सही, लेकिन लोगों के सामने आ गया।
सूचना के मुताबिक अमेरिका की एक अन्य संस्था ‘आवाज’ की ओर से भी अरविंद केजरीवाल को जनलोकपाल आंदोलन के लिए फंड उपलब्ध कराया गया था और इसी ‘आवाज’ ने दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ को फंड उपलब्ध कराया। सीरिया, इजिप्ट, लीबिया आदि देश में सरकार को अस्थिर करने के लिए अमेरिका की इसी ‘आवाज’ संस्था ने वहां के एनजीओ, ट्रस्ट व बुद्धिजीवियों को जमकर फंडिंग की थी। इससे इस विवाद को बल मिलता है कि अमेरिका के हित में हर देश की पॉलिसी को प्रभावित करने के लिए अमेरिकी संस्था जिस ‘फंडिंग का खेल’ खेल खेलती आई हैं, भारत में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और ‘आम आदमी पार्टी’ उसी की देन हैं।
सुप्रीम कोर्ट के वकील एम.एल.शर्मा ने अरविंद केजरीवाल व मनीष सिसोदिया के एनजीओ व उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ में चुनावी चंदे के रूप में आए विदेशी फंडिंग की पूरी जांच के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल कर रखी है। अदालत ने इसकी जांच का निर्देश दे रखा है, लेकिन केंद्रीय गृहमंत्रालय इसकी जांच कराने के प्रति उदासीनता बरत रही है, जो केंद्र सरकार को संदेह के दायरे में खड़ा करता है। वकील एम.एल.शर्मा कहते हैं कि ‘फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-2010’ के मुताबिक विदेशी धन पाने के लिए भारत सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। यही नहीं, उस राशि को खर्च करने के लिए निर्धारित मानकों का पालन करना भी जरूरी है। कोई भी विदेशी देश चुनावी चंदे या फंड के जरिए भारत की संप्रभुता व राजनैतिक गतिविधियों को प्रभावित नहीं कर सके, इसलिए यह कानूनी प्रावधान किया गया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल व उनकी टीम ने इसका पूरी तरह से उल्लंघन किया है। बाबा रामदेव के खिलाफ एक ही दिन में 80 से अधिक मुकदमे दर्ज करने वाली कांग्रेस सरकार की उदासीनता दर्शाती है कि अरविंद केजरीवाल को वह अपने राजनैतिक फायदे के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
अमेरिकी ‘कल्चरल कोल्ड वार’ के हथियार हैं अरविंद केजरीवाल!
फंडिंग के जरिए पूरी दुनिया में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने की अमेरिका व उसकी खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ की नीति को ‘कल्चरल कोल्ड वार’ का नाम दिया गया है। इसमें किसी देश की राजनीति, संस्कृति  व उसके लोकतंत्र को अपने वित्त व पुरस्कार पोषित समूह, एनजीओ, ट्रस्ट, सरकार में बैठे जनप्रतिनिधि, मीडिया और वामपंथी बुद्धिजीवियों के जरिए पूरी तरह से प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। अरविंद केजरीवाल ने ‘सेक्यूलरिज्म’ के नाम पर इसकी पहली झलक अन्ना के मंच से ‘भारत माता’ की तस्वीर को हटाकर दे दिया था। चूंकि इस देश में भारत माता के अपमान को ‘सेक्यूलरिज्म का फैशनेबल बुर्का’ समझा जाता है, इसलिए वामपंथी बुद्धिजीवी व मीडिया बिरादरी इसे अरविंद केजरीवाल की धर्मनिरपेक्षता साबित करने में सफल रही।  
एक बार जो धर्मनिरपेक्षता का गंदा खेल शुरू हुआ तो फिर चल निकला और ‘आम आदमी पार्टी’ के नेता प्रशांत भूषण ने तत्काल कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का सुझाव दे दिया। प्रशांत भूषण यहीं नहीं रुके, उन्होंने संसद हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करते हुए यह तक कह दिया कि इससे भारत का असली चेहरा उजागर हो गया है। जैसे वह खुद भारत नहीं, बल्कि किसी दूसरे देश के नागरिक हों?
प्रशांत भूषण लगातार भारत विरोधी बयान देते चले गए और मीडिया व वामपंथी बुद्धिजीवी उनकी आम आदमी पार्टी को ‘क्रांतिकारी सेक्यूलर दल’ के रूप में प्रचारित करने लगी।  प्रशांत भूषण को हौसला मिला और उन्होंने केंद्र सरकार से कश्मीर में लागू एएफएसपीए कानून को हटाने की मांग करते हुए कह दिया कि सेना ने कश्मीरियों को इस कानून के जरिए दबा रखा है। इसके उलट हमारी सेना यह कह चुकी है कि यदि इस कानून को हटाया जाता है तो अलगाववादी कश्मीर में हावी हो जाएंगे।
अमेरिका का हित इसमें है कि कश्मीर अस्थिर रहे या पूरी तरह से पाकिस्तान के पाले में चला जाए ताकि अमेरिका यहां अपना सैन्य व निगरानी केंद्र स्थापित कर सके।  यहां से दक्षिण-पश्चिम व दक्षिण-पूर्वी एशिया व चीन पर नजर रखने में उसे आसानी होगी।  आम आदमी पार्टी के नेता  प्रशांत भूषण अपनी झूठी मानवाधिकारवादी छवि व वकालत के जरिए इसकी कोशिश पहले से ही करते रहे हैं और अब जब उनकी ‘अपनी राजनैतिक पार्टी’ हो गई है तो वह इसे राजनैतिक रूप से अंजाम देने में जुटे हैं। यह एक तरह से ‘लिटमस टेस्ट’ था, जिसके जरिए आम आदमी पार्टी ‘ईमानदारी’ और ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का ‘कॉकटेल’ तैयार कर रही थी।
8 दिसंबर 2013 को दिल्ली की 70 सदस्यीय विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतने के बाद अपनी सरकार बनाने के लिए अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा आम जनता को अधिकार देने के नाम पर जनमत संग्रह का जो नाटक खेला गया, वह काफी हद तक इस ‘कॉकटेल’ का ही परीक्षण  है। सवाल उठने लगा है कि यदि देश में आम आदमी पार्टी की सरकार बन जाए और वह कश्मीर में जनमत संग्रह कराते हुए उसे पाकिस्तान के पक्ष में बता दे तो फिर क्या होगा?
आखिर जनमत संग्रह के नाम पर उनके ‘एसएमएस कैंपेन’ की पारदर्शिता ही कितनी है? अन्ना हजारे भी एसएमएस  कार्ड के नाम पर अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी द्वारा की गई धोखाधड़ी का मामला उठा चुके हैं। दिल्ली के पटियाला हाउस अदालत में अन्ना व अरविंद को पक्षकार बनाते हुए एसएमएस  कार्ड के नाम पर 100 करोड़ के घोटाले का एक मुकदमा दर्ज है। इस पर अन्ना ने कहा, ‘‘मैं इससे दुखी हूं, क्योंकि मेरे नाम पर अरविंद के द्वारा किए गए इस कार्य का कुछ भी पता नहीं है और मुझे अदालत में घसीट दिया गया है, जो मेरे लिए बेहद शर्म की बात है।’’
प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और उनके ‘पंजीकृत आम आदमी’  ने जब देखा कि ‘भारत माता’ के अपमान व कश्मीर को भारत से अलग करने जैसे वक्तव्य पर ‘मीडिया-बुद्धिजीवी समर्थन का खेल’ शुरू हो चुका है तो उन्होंने अपनी ईमानदारी की चासनी में कांग्रेस के छद्म सेक्यूलरवाद को मिला लिया। उनके बयान देखिए, प्रशांत भूषण ने कहा, ‘इस देश में हिंदू आतंकवाद चरम पर है’, तो प्रशांत के सुर में सुर मिलाते हुए अरविंद ने कहा कि ‘बाटला हाउस एनकाउंटर फर्जी था और उसमें मारे गए मुस्लिम युवा निर्दोष थे।’ इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए अरविंद केजरीवाल उत्तरप्रदेश के बरेली में दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार हो चुके तौकीर रजा और जामा मस्जिद के मौलाना इमाम बुखारी से मिलकर समर्थन देने की मांग की।
याद रखिए, यही इमाम बुखरी हैं, जो खुले आम दिल्ली पुलिस को चुनौती देते हुए कह चुके हैं कि ‘हां, मैं पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का एजेंट हूं, यदि हिम्मत है तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाओ।’ उन पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, अदालत ने उन्हें भगोड़ा घोषित कर रखा है लेकिन दिल्ली पुलिस की इतनी हिम्मत नहीं है कि वह जामा मस्जिद जाकर उन्हें गिरफ्तार कर सके।  वहीं तौकीर रजा का पुराना सांप्रदायिक इतिहास है। वह समय-समय पर कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के पक्ष में मुसलमानों के लिए फतवा जारी करते रहे हैं। इतना ही नहीं, वह मशहूर बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की हत्या करने वालों को ईनाम देने जैसा घोर अमानवीय फतवा भी जारी कर चुके हैं। 

नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए फेंका गया ‘आखिरी पत्ता’ हैं अरविंद! 
दरअसल विदेश में अमेरिका, सउदी अरब व पाकिस्तान और भारत में कांग्रेस व क्षेत्रीय पाटियों की पूरी कोशिश नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने की है। मोदी न अमेरिका के हित में हैं, न सउदी अरब व पाकिस्तान के हित में और न ही कांग्रेस पार्टी व धर्मनिरेपक्षता का ढोंग करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के हित में।  मोदी के आते ही अमेरिका की एशिया केंद्रित पूरी विदेश, आर्थिक व रक्षा नीति तो प्रभावित होगी ही, देश के अंदर लूट मचाने में दशकों से जुटी हुई पार्टियों व नेताओं के लिए भी जेल यात्रा का माहौल बन जाएगा। इसलिए उसी भ्रष्‍टाचार को रोकने के नाम पर जनता का भावनात्मक दोहन करते हुए ईमानदारी की स्वनिर्मित धरातल पर ‘आम आदमी पार्टी’ का निर्माण कराया गया है।
दिल्ली में भ्रष्‍टाचार और कुशासन में फंसी कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की 15 वर्षीय सत्ता के विरोध में उत्पन्न लहर को भाजपा के पास सीधे जाने से रोककर और फिर उसी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार बनाने का ड्रामा रचकर अरविंद केजरीवाल ने भाजपा को रोकने की अपनी क्षमता को दर्शा दिया है। अरविंद केजरीवाल द्वारा सरकार बनाने की हामी भरते ही केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा, ‘‘भाजपा के पास 32 सीटें थी, लेकिन वो बहुमत के लिए 4 सीटों का जुगाड़ नहीं कर पाई। हमारे पास केवल 8 सीटें थीं, लेकिन हमने 28 सीटों का जुगाड़ कर लिया और सरकार भी बना ली।’’
कपिल सिब्बल का यह बयान भाजपा को रोकने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ को खड़ा करने में कांग्रेस की छुपी हुई भूमिका को उजागर कर देता है। वैसे भी अरविंद केजरीवाल और शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित एनजीओ के लिए साथ काम कर चुके हैं। तभी तो दिसंबर-2011 में अन्ना आंदोलन को समाप्त कराने की जिम्मेवारी यूपीए सरकार ने संदीप दीक्षित को सौंपी थी। ‘फोर्ड फाउंडेशन’ ने अरविंद व मनीष सिसोदिया के एनजीओ को 3 लाख 69 हजार डॉलर तो संदीप दीक्षित के एनजीओ को 6 लाख 50 हजार डॉलर का फंड उपलब्ध कराया है। शुरू-शुरू में अरविंद केजरीवाल को कुछ मीडिया हाउस ने शीला-संदीप का ‘ब्रेन चाइल्ड’ बताया भी था, लेकिन यूपीए सरकार का इशारा पाते ही इस पूरे मामले पर खामोशी अख्तियार कर ली गई।
‘आम आदमी पार्टी’ व  उसके नेता अरविंद केजरीवाल की पूरी मंशा को इस पार्टी के संस्थापक सदस्य व प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण ने ‘मेल टुडे’ अखबार में लिखे अपने एक लेख में जाहिर भी कर दिया था, लेकिन बाद में प्रशांत-अरविंद के दबाव के कारण उन्होंने अपने ही लेख से पल्ला झाड़ लिया और ‘मेल टुडे’ अखबार के खिलाफ मुकदमा कर दिया। ‘मेल टुडे’ से जुड़े सूत्र बताते हैं कि यूपीए सरकार के एक मंत्री के फोन पर ‘टुडे ग्रुप’ ने भी इसे झूठ कहने में समय नहीं लगाया, लेकिन तब तक इस लेख के जरिए नरेंद्र मोदी को रोकने लिए ‘कांग्रेस-केजरी’ गठबंधन की समूची साजिश का पर्दाफाश हो गया। यह अलग बात है कि कम प्रसार संख्या और अंग्रेजी में होने के कारण ‘मेल टुडे’ के लेख से बड़ी संख्या में देश की जनता अवगत नहीं हो सकी, इसलिए उस लेख के प्रमुख हिस्से को मैं यहां जस का तस रख रहा हूं, जिसमें नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए गठित ‘आम आदमी पार्टी’ की असलियत का पूरा ब्यौरा है।
शांति भूषण ने इंडिया टुडे समूह के अंग्रेजी अखबार ‘मेल टुडे’ में लिखा था, ‘‘अरविंद केजरीवाल ने बड़ी ही चतुराई से भ्रष्‍टाचार के मुद्दे पर भाजपा को भी निशाने पर ले लिया और उसे कांग्रेस के समान बता डाला।  वहीं खुद वह सेक्यूलरिज्म के नाम पर मुस्लिम नेताओं से मिले ताकि उन मुसलमानों को अपने पक्ष में कर सकें जो बीजेपी का विरोध तो करते हैं, लेकिन कांग्रेस से उकता गए हैं।  केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उस अन्ना हजारे के आंदोलन की देन हैं जो कांग्रेस के करप्शन और मनमोहन सरकार की कारगुजारियों के खिलाफ शुरू हुआ था। लेकिन बाद में अरविंद केजरीवाल की मदद से इस पूरे आंदोलन ने अपना रुख मोड़कर बीजेपी की तरफ कर दिया, जिससे जनता कंफ्यूज हो गई और आंदोलन की धार कुंद पड़ गई।’’
‘‘आंदोलन के फ्लॉप होने के बाद भी केजरीवाल ने हार नहीं मानी। जिस राजनीति का वह कड़ा विरोध करते रहे थे, उन्होंने उसी राजनीति में आने का फैसला लिया। अन्ना इससे सहमत नहीं हुए । अन्ना की असहमति केजरीवाल की महत्वाकांक्षाओं की राह में रोड़ा बन गई थी। इसलिए केजरीवाल ने अन्ना को दरकिनार करते हुए ‘आम आदमी पार्टी’ के नाम से पार्टी बना ली और इसे दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के खिलाफ खड़ा कर दिया।  केजरीवाल ने जानबूझ कर शरारतपूर्ण ढंग से नितिन गडकरी के भ्रष्‍टाचार की बात उठाई और उन्हें कांग्रेस के भ्रष्‍ट नेताओं की कतार में खड़ा कर दिया ताकि खुद को ईमानदार व सेक्यूलर दिखा सकें।  एक खास वर्ग को तुष्ट करने के लिए बीजेपी का नाम खराब किया गया। वर्ना बीजेपी तो सत्ता के आसपास भी नहीं थी, ऐसे में उसके भ्रष्‍टाचार का सवाल कहां पैदा होता है?’’
‘‘बीजेपी ‘आम आदमी पार्टी’ को नजरअंदाज करती रही और इसका केजरीवाल ने खूब फायदा उठाया। भले ही बाहर से वह कांग्रेस के खिलाफ थे, लेकिन अंदर से चुपचाप भाजपा के खिलाफ जुटे हुए थे। केजरीवाल ने लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए इसका पूरा फायदा दिल्ली की चुनाव में उठाया और भ्रष्‍टाचार का आरोप बड़ी ही चालाकी से कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा पर भी मढ़ दिया।  ऐसा उन्होंने अल्पसंख्यक वोट बटोरने के लिए किया।’’
‘‘दिल्ली की कामयाबी के बाद अब अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय राजनीति में आने जा रहे हैं। वह सिर्फ भ्रष्‍टाचार की बात कर रहे हैं, लेकिन गवर्नेंस का मतलब सिर्फ भ्रष्‍टाचार का खात्मा करना ही नहीं होता। कांग्रेस की कारगुजारियों की वजह से भ्रष्‍टाचार के अलावा भी कई सारी समस्याएं उठ खड़ी हुई हैं। खराब अर्थव्यवस्था, बढ़ती कीमतें, पड़ोसी देशों से रिश्ते और अंदरूनी लॉ एंड ऑर्डर समेत कई चुनौतियां हैं। इन सभी चुनौतियों को बिना वक्त गंवाए निबटाना होगा।’’
‘‘मनमोहन सरकार की नाकामी देश के लिए मुश्किल बन गई है। नरेंद्र मोदी इसलिए लोगों की आवाज बन रहे हैं, क्योंकि उन्होंने इन समस्याओं से जूझने और देश का सम्मान वापस लाने का विश्वास लोगों में जगाया है। मगर केजरीवाल गवर्नेंस के व्यापक अर्थ से अनभिज्ञ हैं। केजरीवाल की प्राथमिकता देश की राजनीति को अस्थिर करना और नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना है।  ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर मोदी एक बार सत्ता में आ गए तो केजरीवाल की दुकान हमेशा के लिए बंद हो जाएगी।’’

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

केजरीवाल के 'परिवर्तन' का फोर्ड से रिश्ता....

 अब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। पहले ‘परिवर्तन’ नामक संस्था के प्रमुख थे। उनका यह सफर रोचक है। उनकी संस्थाओं के पीछे खड़ी विदेशी शक्तियों को लेकर भी कई सवाल हवा में तैर रहे हैं।
एक ‘बियॉन्ड हेडलाइन्स’ नामक वेबसाइट ने ‘सूचना के अधिकार कानून’ के जरिए ‘कबीर’ को विदेशी धन मिलने की जानकारी मांगी। इस जानकारी के अनुसार ‘कबीर’ को 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड फाउंडेशन से 86,61,742 रुपए मिले हैं। कबीर को धन देने वालों की सूची में एक ऐसा भी नाम है, जिसे पढ़कर हर कोई चौंक जाएगा। यह नाम डच दूतावास का है।
पहला सवाल तो यही है कि फोर्ड फाउंडेशन और अरविंद केजरीवाल के बीच क्या संबंध हैं? दूसरा सवाल है कि क्या हिवोस भी उनकी संस्थाओं को मदद देता है? तीसरा सवाल, क्या डच दूतावास के संपर्क में अरविंद केजरीवाल या फिर मनीष सिसोदिया रहते हैं?
इन सवालों का जवाब केजरीवाल को इसलिए भी देना चाहिए, क्योंकि इन सभी संस्थाओं से एक चर्चित अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसी के संबंध होने की बात अब सामने आ चुकी है। वहीं अरविंद केजरीवाल एक जनप्रतिनिधि हैं।
पहले बाद करते हैं फोर्ड फाउंडेशन और अरविंद केजरीवाल के संबंधों पर। जनवरी 2000 में अरविंद छुट्टी पर गए। फिर ‘परिवर्तन’ नाम से एक गैर सरकारी संस्था (एनजीओ) का गठन किया। केजरीवाल ने साल 2006 के फरवरी महीने से ‘परिवर्तन’ में पूरा समय देने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ दी। इसी साल उन्हें उभरते नेतृत्व के लिए मैगसेसे का पुरस्कार मिला।
यह पुरस्कार फोर्ड फाउंडेशन की मदद से ही सन् 2000 में शुरू किया गया था। केजरीवाल के प्रत्येक कदम में फोर्ड फाउंडेशन की भूमिका रही है। पहले उन्हें 38 साल की उम्र में 50,000 डॉलर का यह पुरस्कार मिला, लेकिन उनकी एक भी उपलब्धि का विवरण इस पुरस्कार के साथ नहीं था। हां, इतना जरूर कहा गया कि वे परिवर्तन के बैनर तले केजरीवाल और उनकी टीम ने बिजली बिलों संबंधी 2,500 शिकायतों का निपटारा किया।
विभिन्न श्रेणियों में मैगसेसे पुरस्कार रोकफेलर ब्रदर्स फाउंडेशन ने स्थापित किया था। इस पुरस्कार के साथ मिलने वाली नगद राशि का बड़ा हिस्सा फोर्ड फाउंडेशन ही देता है। आश्चर्यजनक रूप से केजरीवाल जब सरकारी सेवा में थे, तब भी फोर्ड उनकी संस्था को आर्थिक मदद पहुंचा रहा था। केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया के साथ मिलकर 1999 में ‘कबीर’ नामक एक संस्था का गठन किया था। हैरानी की बात है कि जिस फोर्ड फाउंडेशन ने आर्थिक दान दिया, वही संस्था उसे सम्मानित भी कर रही थी। ऐसा लगता है कि यह सब एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा थी।
फोर्ड ने अपने इस कदम से भारत के जनमानस में अपना एक आदमी गढ़ दिया। केजरीवाल फोर्ड फाउंडेशन द्वारा निर्मित एक महत्वपूर्ण आदमी बन गए। हैरानी की बात यह भी है कि ‘कबीर’ पारदर्शी होने का दावा करती है, लेकिन इस संस्था ने साल 2008-9 में मिलने वाले विदेशी धन का व्योरा अपनी वेबसाइट पर नहीं दिया है, जबकि फोर्ड फाउंडेशन से मिली जानकारी बताती है कि उन्होंने ‘कबीर’को 2008 में 1.97 लाख डॉलर दिए। इससे साफ होता है कि फोर्ड फाउंडेशन ने 2005 में अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए अरविंद केजरीवाल को चुना। उसकी सारी गतिविधियों का खर्च वहन किया। इतना ही नहीं, बल्कि मैगससे पुरस्कार दिलवाकर चर्चा में भी लाया।
एक ‘बियॉन्ड हेडलाइन्स’ नामक वेबसाइट ने ‘सूचना के अधिकार कानून’ के जरिए ‘कबीर’ को विदेशी धन मिलने की जानकारी मांगी। इस जानकारी के अनुसार ‘कबीर’ को 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड फाउंडेशन से 86,61,742 रुपए मिले हैं। कबीर को धन देने वालों की सूची में एक ऐसा भी नाम है, जिसे पढ़कर हर कोई चौंक जाएगा। यह नाम डच दूतावास का है।
यहां सवाल उठता है कि आखिर डच दूतावास से अरविंद केजरीवाल का क्या संबंध है? क्योंकि डच दूतावास हमेशा ही भारत में संदेह के घेरे में रहा है। 16 अक्टूबर, 2012 को अदालत ने तहलका मामले में आरोप तय किए हैं। इस पूरे मामले में जिस लेख को आधार बनाया गया है, उसमें डच की भारत में गतिविधियों को संदिग्ध बताया गया है।
इसके अलावा सवाल यह भी उठता है कि किसी देश का दूतावास किसी दूसरे देश की अनाम संस्था को सीधे धन कैसे दे सकता है? आखिर डच दूतावास का अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया से क्या रिश्ता है? यह रहस्य है। न तो स्वयं अरविंद और न ही टीम अरविंद ने इस बाबत कोई जानकारी दी है।
इतना ही नहीं, बल्कि 1985 में पीएसओ नाम की एक संस्था बनाई गई थी। इस संस्था का काम विकास में सहयोग के नाम पर विशेषज्ञों को दूसरे देशों में तैनात करना था। पीएसओ को डच विदेश मंत्रालय सीधे धन देता है। पीएसओ हिओस समेत 60 डच विकास संगठनों का समूह है। नीदरलैंड सरकार इसे हर साल 27 मिलियन यूरो देती है। पीएसओ ‘प्रिया’ संस्था का आर्थिक सहयोगी है। प्रिया का संबंध फोर्ड फाउंडेशन से है। यही ‘प्रिया’ केजरीवाल और मनीष सिसोदिया की संस्था ‘कबीर’ की सहयोगी है।
इन सब बातों से साफ है कि डच एनजीओ, फोर्ड फाउंडेशन,डच सरकार और केजरीवाल के बीच परस्पर संबंध है। इतना ही नहीं, कई देशों से शिकायत मिलने के बाद पीएसओ को बंद किया जा रहा है। ये शिकायतें दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से संबंधित हैं। 2011 में पीएसओ की आम सभा ने इसे 1 जनवरी, 2013 को बंद करने का निर्णय लिया है। यह निर्णय दूसरे देशों की उन्हीं शिकायतों का असर माना जा रहा है।
हाल ही में पायनियर नामक अंग्रेजी दैनिक अखबार ने कहा कि हिवोस ने गुजरात के विभिन्न गैर सरकारी संगठन को अप्रैल 2008 और अगस्त 2012 के बीच 13 लाख यूरो यानी सवा नौ करोड़ रुपए दिए। हिवोस पर फोर्ड फाउंडेशन की सबसे ज्यादा कृपा रहती है। डच एनजीओ हिवोस इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस द हेग (एरासमस युनिवर्सिटी रोटरडम) से पिछले पांच सालों से सहयोग ले रही है। हिवोस ने “परिवर्तन” को भी धन मुहैया कराया है।
इस संस्था की खासियत यह है कि विभिन्न देशों में सत्ता के खिलाफ जनउभार पैदा करने की इसे विशेषज्ञता हासिल है। डच सरकार के इस पूरे कार्यक्रम का समन्वय आईएसएस के डॉ.क्रीस बिकार्ट के हवाले है। इसके साथ-साथ मीडिया को साधने के लिए एक संस्था खड़ी की गई है। इस संस्था के दक्षिणी एशिया में सात कार्यालय हैं। जहां से इनकी गतिविधियां संचालित होती हैं। इस संस्था का नाम ‘पनोस’ है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या जो हो रहा है वह प्रायोजित है?

आम आदमी पार्टी की असलियत....

सबसे ईमानदार, मैं सबसे त्यागी, मैं सबसे बड़ा संत, मैं ही सर्वगुणसम्पन्न और बाक़ी दुनिया के सारे लोग भ्रष्ट, बेईमान और धूर्त हैं. मेरी अच्छाई को बताने वाले ईमानदार और मुझ पर उंगली उठाने वाले दलाल, यह आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की राजनीति का स्वभाव है. चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने ईमानदार पार्टी को वोट करने की मांग की. लेकिन लोगों ने उनकी पार्टी से ज़्यादा वोट बीजेपी को दिया. क्या अब भी ज़्यादातर लोग आम आदमी पार्टी को ईमानदार नहीं मानते. नतीजे आ गए, लेकिन सरकार नहीं बनी. जीत का जश्‍न तो अरविंद केजरीवाल मना रहे हैं, लेकिन आगे ब़ढकर दायित्व लेने से कतरा रहे हैं. वो इसलिए कि जो वादे उन्होंने दिल्ली की जनता से किए हैं, उसकी पोल खुल जाएगी. दिल्ली विधानसभा चुनाव कई मायने में हैरतरंगेज रहा. नतीजे तो चौंकाने वाले थे ही, लेकिन पहली बार ऐसा देखा गया कि कम सीटें जीतने वाली पार्टी का जश्‍न सबसे ज़्यादा सीट पाने वाली पार्टी से ज़्यादा बड़ा था. पहली बार यह भी देखा गया कि कैसे कोई पार्टी बिना बहुमत लाए ख़ुद को विजेता घोषित करने पर तुली है. दिल्ली के नतीजे के बाद कई दिनों तक टीवी चैनलों पर आम आदमी पार्टी की ही जय-जयकार होती रही. जबकि राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया ने ऐतिहासिक विजय प्राप्त की. कई मायनों में मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की जीत भी ऐतिहासिक है, लेकिन आम आदमी पार्टी बहुमत भी न ला सकी, फिर भी मीडिया आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन को जीत साबित करने पर तुली है. आम आदमी पार्टी के तेवर और बयान से भी यह भ्रम पैदा होता है कि दिल्ली चुनाव में यह पार्टी विजयी हो गई है. लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि दिल्ली चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने सबसे ज़्यादा सीटें जीती हैं. आख़िर आम आदमी पार्टी में ऐसी क्या ख़ास बात है कि उसे लोगों और मीडिया का इतना समर्थन मिला कि अब उसकी हार भी जीत दिखाई पड़ती है. प्रजातंत्र में जनता का फैसला आख़िरी फैसला होता है. चुनाव नतीजों से यह पता चलता है कि किस पार्टी को कितना समर्थन मिला और उससे ही यह तय होता है कि जनता ने किसकी बातों पर कितना भरोसा किया. लेकिन समझने वाली बात यह है कि इससे सच और झूठ तय नहीं होता है. सच और झूठ का फ़़र्क करने के लिए थोड़े शोध की ज़रूरत पड़ती है. ऐसा कई बार देखा गया है कि राजनीतिक दल झूठ बोलकर भी चुनाव जीतने की कोशिश करते हैं. कभी वो सफल हो जाते हैं और कभी वो इसमें पकड़े जाते हैं और जनता उन्हें सबक सिखाती है. एक उदाहरण देता हूं. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने एक सफेद झूठ बोला. उन्होंने अपने घोषणा पत्र में कहा कि वह रंगनाथ मिश्र कमीशन के सुझावों को लागू कर रही है, जिसके तहत मुसलमानों को सरकारी नौकरी में पांच फ़ीसदी रिजर्वेशन देगी. लेकिन इसमें एक ट्रिक थी. पार्टी हर जगह अल्पसंख्यकों की बात लिखती थी, जैसा कि रंगनाथ मिश्र कमीशन में बताया गया था, लेकिन उर्दू मीडिया के जरिए इसे मुसलमानों के लिए रिज़र्वेशन बताया गया. कांग्रेसी नेताओं ने इसे मुसलमानों के लिए बताया, जबकि अल्पसंख्यकों में तो सिख, इसाई, जैन और पारसी भी शामिल हैं. मतलब यह कि कांग्रेस पार्टी ने मुस्लिम रिज़र्वेशन के नाम पर मुसलमानों को भ्रमित करके वोट लेना चाहती थी. लेकिन चौथी दुनिया ने जब इस झूठ को पकड़ा और ईटीवी उर्दू के इलेक्शन न्यूजलाइन कार्यक्रम के ज़रिए जब इसका भंडाफोड़ किया तो असलियत सामने आ गई. कांग्रेस का झूठ पकड़ा गया. कांग्रेस पार्टी बेनक़ाब हो गई. लोगों ने ख़ासकर मुसलमान मतदाताओं ने कांग्रेस को सबक़ सिखाया और पार्टी को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. अगर यह झूठ नहीं पकड़ा जाता और कांग्रेस पार्टी मुसलमानों में रिज़र्वेशन का भ्रम ़फैलाने में क़ामयाब हो जाती, तो कांग्रेस पार्टी की सीटें बहुत ज़्यादा होतीं. दिल्ली के चुनावों में ठीक इसका उल्टा हुआ. आम आदमी पार्टी लोगों को झांसा देकर समर्थन पाने में क़ामयाब रही. मीडिया अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के भ्रामक प्रचार को पकड़ नहीं सका. आम आदमी पार्टी के झूठ की लिस्ट लंबी है. इस पार्टी ने दिल्ली चुनाव में जनलोकपाल को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया. पार्टी ने दावा किया कि चुनाव जीतने के बाद 29 तारीख़ को दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना के जनलोकपाल को पास कर देगी. यह एक स़फेद झूठ था. जनलोकपाल संसद के द्वारा लाया जाना था. चुनाव के वक्त भी जनलोकपाल बिल संसद में पड़ा था. समझने वाली बात यह है कि जिस बिल को स़िर्फ और स़िर्फ लोकसभा और राज्यसभा में पास किया जा सकता है, उसे अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी दिल्ली विधानसभा में कैसे पास कर सकती है? चुनाव से पहले अन्ना हजारे ने इस झूठ को पकड़ लिया और अरविंद केजरीवाल को चिट्ठी लिखी कि वो उनके नाम का इस्तेमाल भ्रम फैलाने में न करें. इसके बाद अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने पैंतरा बदला और दूसरा झूठ लोगों के सामने परोस दिया. इन लोगों ने कहा कि लोगों को जनलोकायुक्त समझ में नहीं आता, इसलिए वो इसे जनलोकपाल कह रहे थे. वाह! आपने पहले ही मान लिया जनता बेव़कूफ़ है और उसे जनलोकपाल और जनलोकायुक्त का अंतर पता नहीं है. अब ज़रा दिल्ली में लोकायुक्त की स्थिति को भी समझते हैं. दिल्ली में पहले से ही लोकायुक्त क़ानून मौजूद है. दिल्ली में अब कोई नया लोकायुक्त क़ानून नहीं आ सकता है, हां, इस लोकायुक्त क़ानून में बदलाव ज़रूर किया जा सकता है. अगर आम आदमी पार्टी चुनाव जीत भी जाती, तो वर्तमान क़ानून में बदलाव ही कर सकती थी. विधानसभा में पास कराने के बाद लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास भेजा जाता और फिर इसे राष्ट्रपति के पास मंज़ूरी के लिए भेजा जाता. राष्ट्रपति के पास भेजने का मतलब यूपीए की कैबिनेट दिल्ली के लोकायुक्त क़ानून में हुए बदलाव पर फैसला लेती. मतलब यह कि अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी लोकायुक्त क़ानून को लेकर फिर से उसी स्थिति पर पहुंच जाती, जहां वो 2011 में थी. फ़र्क स़िर्फ इतना कि उस वक्त ये लोग अन्ना हजारे के आंदोलन में शामिल एक आम नागरिक थे, जो अब विधायक बन चुके हैं. जनलोकपाल के नाम पर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने सफेद झूठ बोला, लेकिन दिल्ली के लोगों को लगा कि यह पार्टी सचमुच जनलोकपाल लाना चाहती है. असलियत यह है कि अन्ना के आंदोलन से जुड़े लोग यह बताते हैं कि 2011 के रामलीला मैदान के आंदोलन के बाद बनी ज्वाइंट कमेटी में, जिसमें पांच-पांच लोग सरकार और टीम अन्ना के थे, चार ऐसे लोग थे जो जनलोकपाल बनाना नहीं चाहते थे. इसमें से दो सरकार की तरफ़ से और दो टीम अन्ना से थे. कपिल सिब्बल और पी चिंदबरम जनलोकपाल बनाने के ख़िलाफ़ थे, जबकि अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया इसे बनाने ही नहीं देना चाहते थे. वजह साफ़ है कि अगर उस वक्त जनलोकपाल बन जाता तो अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की मौत हो जाती. आम आदमी पार्टी ने लोगों को झांसा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पहले हर उम्मीदावार से पार्टी ने एक शपथ-पत्र लिया. शपथ पत्र में बताया गया कि चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी के विधायक लाल बत्ती गाड़ी का इस्तेमाल नहीं करेंगे. ऐसी बातें सुनने में तो बहुत अच्छ लगती हैं, लेकिन ज़रा इस शपथ की सच्चाई समझनी ज़रूरी है. पहले यह समझना होगा कि क्या विधायकों को लाल बत्ती लगाने का अधिकार है या नहीं? छह महीने पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने लाल बत्तियों पर एक निर्देश दिया था. इस निर्देश के मुताबिक़, विधायकों को लाल बत्ती लगाने अधिकार ही नहीं है. अब जब विधायकों को लालबत्ती लगाने का अधिकार ही नहीं है, तब आम आदमी पार्टी अपने हलफ़नामे में इस बात को सबसे ऊपर रखकर क्या साबित करना चाह रही थी? यह लोगों को भ्रमित करने की चाल थी. पढ़े-लिखे लोग भी भ्रमित हो गए. दूसरी शपथ ये है कि आम आदमी पार्टी के विधायक ज़रूरत से ज़्यादा सुरक्षा नहीं लेंगे. अब ज़रूरत से ज़्यादा की परिभाषा क्या है और इसे कौन तय करेगा? वैसे ज़रूरत से ज़्यादा सुरक्षा देश में किसी भी नेता को नही हैं. यह सुरक्षा विभाग ही तय करता है कि किसे कितनी सुरक्षा की ज़रूरत है. तीसरी शपथ यह थी कि आम आदमी पार्टी के विधायक ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा बंगला नहीं लेंगे, अब यह भी कैसे तय होगा? विधायकों को जो घर एलाट होते हैं, वो ज़रूरत से ज़्यादा बड़े हैं या नहीं, यह कैसे तय होगा? समझने वाली बात यह है कि इन बातों को आम आदमी पार्टी ने बख़ूबी अपने हलफ़नामों में डाला, लेकिन भाषणों में ये लोगों को यह बताते रहे कि आम आदमी पार्टी के विधायक न लालबत्ती की गाड़ियां इस्तेमाल करेगा, न सुरक्षा लेगा और न ही बंगला लेगा. लोग इतने में ही ऐसा भ्रमित हुए कि किसी ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि इन वादों की हक़ीक़त क्या है. आम आदमी पार्टी ने एक और झूठ बोला और इस झूठ को फैलाने में देश के मीडिया ने अहम रोल अदा किया. आम आदमी पार्टी ने अपनी ही पार्टी के नेता योगेंद्र यादव के द्वारा एक सर्वे कराया. सर्वे में यह दावा किया गया कि पार्टी 47 सीट जीतेगी. पहली बार सर्वे रिपोर्ट का पोस्टर बनाकर दिल्ली में चिपकाया गया. आम आदमी पार्टी का सर्वे कैसे फ़र्ज़ी था, आम आदमी पार्टी के झूठ की लिस्ट लंबी है. इस पार्टी ने दिल्ली चुनाव में जनलोकपाल को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया. पार्टी ने दावा किया कि चुनाव जीतने के बाद 29 तारीख़ को दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना के जनलोकपाल को पास कर देगी. यह एक स़फेद झूठ था. जनलोकपाल संसद के द्वारा लाया जाना था. चुनाव के वक्त भी जनलोकपाल बिल संसद में पड़ा था. समझने वाली बात यह है कि जिस बिल को स़िर्फ और स़िर्फ लोकसभा और राज्यसभा में पास किया जा सकता है, उसे अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी दिल्ली विधानसभा में कैसे पास कर सकती है? यह हमने कुछ अंक पहले विस्तार से छापा था. लेकिन योगेंद्र यादव अपने भोले-भाले चेहरे और अपनी मुस्कुराहटों के बीच एक के बाद एक झूठा दावा करते चले गए. मीडिया ने भी साथ दिया. दिल्ली में एक हवा सी बन गई कि आम आदमी पार्टी को बहुमत मिलने वाला है. लोगों ने सच से मुंह फेरा और आम आदमी पार्टी के प्रोपेगैंडा में फंस गए. हैरानी की बात तो यह है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी को 47 सीटें तो नहीं आईं और न ही बहुमत आया, फिर भी योगेंद्र यादव उन लोगों को कोस रहे हैं, जिनके सर्वे में आम आदमी पार्टी को तीसरे स्थान पर दिखाया गया. आम आदमी पार्टी की स्वघोषित ईमानदारी और स्वधोषित राइटमैनशिप की वजह से लोग भ्रमित हुए. अरविंद केजरीवाल ने बड़ी चालाकी से ख़ुद को दुनिया का सबसे ईमानदार घोषित किया. एक कहानी तैयार की कि मैं इनकम टैक्स कमिश्‍नर था. अगर पैसे कमाने होते तो मैं ऐशो-आराम की नौकरी क्यों छोड़ता. कमिश्‍नर की नौकरी करते हुए मैं करोड़ों कमा सकता था. ऐसा सुनते ही लोग बाग-बाग हो उठे. हालांकि, सच्चाई का पता तब चला, जब इनकमटैक्स ऑफीसर्स एशोसिएशन की तरफ से एक चिट्टी सामने आई. इस चिट्ठी में यह लिखा था कि अरविंद केजरीवाल कभी इनकम टैक्स कमिश्‍नर थे ही नहीं. उनके बैच का अभी तक कोई कमिश्‍नर नहीं बन पाया है. इस झूठ को भी लोगों ने नज़रअंदाज़ किया. वैसे यह भी सामने नहीं आ सका कि जब केजरीवाल ऐसा बयान देते हैं तो इसका मतलब है कि इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में कोई अगर काम करता है तो वह घूस के पैसे से करोड़पति बन जाता है. अरविंद केजरीवाल को यह भी बताना चाहिए कि उनकी पत्नी आज भी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में उसी स्तर की अधिकारी क्यों हैं? आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के चुनाव में और भी कई झूठ बोले. उन्होंने कहा कि स़िर्फ आम आदमी पार्टी ही ईमादार पार्टी है और इसके हर उम्मीदवार ईमानदार हैं. वैसे ईमानदारी को टेस्ट करने की अभी तक कोई मशीन नहीं बनी है, फिर भी जब स्टिंग ऑपरेशन में आम आदमी पार्टी के कई उम्मीदवारों की पोल खुली तो पार्टी ने वही रुख़ अपनाया जो कांग्रेस पार्टी ने घोटाले में पकड़े जाने के बाद अपनाया. ख़ुद ही मुक़दमा चलाया, ख़ुद ही जांच की और ख़ुद ही फैसला सुनाया. पार्टी ने स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े गए सभी उम्मीदवारों को क्लीन चिट दे दी. झूठ का सहारा लेकर स्टिंग ऑपरेशन को ही झूठा साबित कर दिया और मीडिया ने आम आदमी पार्टी के इस झूठ को चैलेंज नहीं किया. वैसे एबीपी न्यूज़ के वरिष्ट पत्रकार विजय विद्रोही ने स्टिंग ऑपरेशन की पूरी टेप देखी और कहा कि स्टिंग ऑपरेशन में कांटेक्स्ट के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई. अब सवाल यह है कि क्या इतने सारे झूठ बोलकर कोई पार्टी इतनी सीट जीत सकती है? ऐसा प्रश्‍न कई लोगों के मन में ज़रूर उठता है. तो इसका जवाब बिल्कुल सीधा-सादा है कि ऐसा तो अब तक नहीं हुआ था, लेकिन आम आदमी पार्टी ने एक से ब़ढकर एक झूठे बादे किए और लोगों को भ्रमित करने में सफल हो गई. बीजेपी और कांग्रेस भी लोगों को भ्रमित करती हैं, लेकिन पहली बार राजनीति में ऐसा कोई सामने आया है, जो पढ़े-लिखे विचारवान लोगों को भी भ्रमित करने में सफल रहा है. हिंदुस्तान के लोग और मीडिया उगते हुए सूरज को सलाम करते-करते चापलूसी की सीमा तक पहुंच जाते हैं. सच का पता करने के बजाए चारण बनना उन्हें ज़्यादा अच्छा लगता है. यही वजह है कि देश के सबसे तेज़ चैनल के साथ-साथ दूसरे कई चैनल अरविंद केजरीवाल को अन्ना से महान और एक युगपुरुष साबित करने में जुटे हुए हैं. लेकिन वो इस बात को भूल जाते हैं कि बारिश होते ही रंगे सियार की असलियत सामने आने लगती है.  

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रविवार, 22 दिसंबर 2013

बधाई हो ... "आप" को मिल गया अपने माँ बाप का साथ .... कांग्रेस का हाथ "आम आदमी के साथ" नामक स्लोगन आज पहली बार चरितार्थ हो गया ||


दिल्ली में मुंगेरी लाल ने खिचडी सरकार बनाने ऐलान किया। अब दिल्ली में बिजली-पानी मुफ्त में मिलेगा...अंधेर नगरी चौपट्ट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा,


देखिये इन दोगलो को ... अभी "आ.आ.पा." की सरकार बनी भी नही और ये अभी से कश्मीर को भारत से अलग करने की मांग करने लगे ..

देखिये इन दोगलो को ... अभी "आ.आ.पा." की सरकार बनी भी नही और ये अभी से कश्मीर को भारत से अलग करने की मांग करने लगे .. लाइव टीवी डिबेट में आम आदमी पार्टी के जीते हुए विधायक ने कहा की कश्मीर में जनमत संग्रह होना चाहिए और यदि लोग भारत से अलग होना चाहे तो कश्मीर को भारत से अलग कर देना चाहिए 

https://www.youtube.com/watch?v=IPCdhE5B9SQ&feature=youtube_gdata_player