रविवार, 23 फ़रवरी 2014

नीति और नीयत साफ़ नहीं है

नीति और नीयत साफ़ नहीं है

वैचारिक विरोधाभास किसी भी राजनीतिक दल की सेहत के लिए अच्छा नहीं होता है. ऐसी पार्टियां समाज को नेतृत्व नहीं दे सकतीं, समस्याओं का निदान नहीं कर सकतीं. आम आदमी पार्टी की समस्या यह है कि इसका आधार ही विरोधाभास से ग्रसित है. यही वजह है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बने एक महीना भी नहीं बीता और केजरीवाल के साथ-साथ पूरी पार्टी की टाय-टाय फिस्स हो गई. पार्टी की नीति और नीयत, दोनों उजागर हो गईं. नेताओं की अज्ञानता और अनुभवहीनता लोगों के सामने आ गई. झूठे वायदों का पर्दाफाश हो गया. पार्टी के मतभेद सड़क पर आ गए. सरकार और पुलिस के बीच चिंताजनक मतभेद ने लोगों को निराश किया. सवाल यह है कि आख़िर आम आदमी पार्टी, जिसकी जय-जयकार पूरे देश में हो रही थी, एक ही महीने में लोगों की नज़रों में कैसे गिर गई और लोगों का भरोसा क्यों टूट गया?  दिल्ली में सरकार बनने के बाद आम आदमी पार्टी ने पहले पंद्रह दिनों में स़िर्फ एक नीतिगत फैसला लिया और वह था खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश पर. इस फैसले की मीडिया में काफी भर्त्सना हुई, लेकिन आश्‍चर्य इस बात से हुआ कि आम आदमी पार्टी से भी विरोध के स्वर सुनाई दिए. अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली में खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश नहीं होगा. बाज़ार समर्थक अर्थशास्त्रियों ने इस फैसले को गलत बताया, लेकिन आश्‍चर्य तब हुआ, जब कैप्टन गोपीनाथ ने इस फैसले का विरोध किया, तो नजारा बदल गया. इससे यह साबित हो गया कि पार्टी की कोई विचारधारा नहीं है. पार्टी में मुद्दे को लेकर एकराय नहीं है. हास्यास्पद घटना तो एक टीवी बहस में हुई, जब कैप्टन गोपीनाथ और पार्टी के सबसे नए प्रवक्ता आशुतोष इस मुद्दे पर आपस में भिड़ गए. आशुतोष ने यहां तक कह दिया कि पार्टी का मैनिफेस्टो पढ़े बिना किसी को पार्टी ज्वाइन नहीं करना चाहिए. वैसे सदस्यता अभियान की घोषणा करने से पहले तो यह बताया नहीं गया था. यूं भी पार्टी का मैनिफेस्टो तो दिल्ली के लिए था… मुंबई वालों को दिल्ली के मैनिफेस्टो से क्या लेना-देना? आप की विचारधारा तो उसकी वेबसाइट पर होनी चाहिए, लेकिन वह वहां नहीं है. लेकिन इसी बहस के दौरान जब किरण बेदी ने आशुतोष के उस बयान को सामने रखा, जिसमें उन्होंने विदेशी निवेश का विरोध करने वालों को मूर्ख बताया था, तब आशुतोष पूरी तरह से बेनकाब हो गए. दरअसल, जबसे सरकार बनी है, तबसे आम आदमी पार्टी एक न एक वैचारिक मुद्दे में उलझती गई और हर बार यही सिद्ध होता गया कि आम आदमी पार्टी का आधार न तो कोई समग्र विचारधारा है और न ही कोई नीति है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि एक पार्टी, जो देश की सत्ता पर काबिज होने का लालच तो रखती है, लेकिन उसके पास न विचारधारा है, न आर्थिक नीति है, न विदेश नीति है, न सुरक्षा नीति है, न उद्योग नीति है, न कृषि नीति है और न ही महंगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से निपटने का कोई ब्लूप्रिंट है. दरअसल, इस पार्टी की दृष्टि ही संकुचित है. यह पार्टी देश की समस्याएं सामने लाने को ही विचारधारा समझती है. यही वजह है कि जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, आम आदमी पार्टी एक्सपोज होती जा रही है. वैसे अरविंद केजरीवाल बड़ी-बड़ी बातें कहकर लोगों को झांसा देते आए हैं. वह ऐसी बातें कहते हैं, जिनका न तो सिर है, न पैर. अरविंद केजरीवाल देश में व्यवस्था परिवर्तन की बातें करते हैं. वैसे संविधान निर्माताओं ने भारत की विशालता और जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए भारत को एक रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी यानी प्रतिनिधि प्रजातंत्र बनाया था, जिसमें लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और वही जनता की ओर से ़फैसले लेते हैं. इसमें कई कमियां ज़रूर हैं, जिन्हें दुरुस्त करने की ज़रूरत है, लेकिन अरविंद केजरीवाल के दिमाग में कुछ और ही है. वह भारत को डायरेक्ट डेमोक्रेसी यानी सहभागी प्रजातंत्र में तब्दील करना चाहते हैं. इस व्यवस्था में सरकार के हर ़फैसले में जनता की राय ज़रूरी है. इसीलिए सरकार को सीधे जनता के बीच ले जाना, जनता द्वारा ही नीतियां बनाना एवं जनता से पूछकर सरकार चलाना जैसी बातें अरविंद केजरीवाल करते हैं. इसी बात को साबित करने के लिए अरविंद केजरीवाल ने जनता दरबार सड़क पर बुलाया, लेकिन जब जनता आई, तो अरविंद केजरीवाल के व्यवस्था परिवर्तन के नज़रिए पर सवाल खड़ा हो गया, वहां भगदड़ मच गई और जनता दरबार में भगदड़ के डर से भागने वाले सबसे पहले स्वयं अरविंद केजरीवाल थे. लेकिन जब वह सचिवालय की छत से लोगों से मुखातिब हुए, तो वह चिल्ला- चिल्लाकर जनता दरबार को जन अदालत कहते नज़र आए. यह बड़ा ही हास्यास्पद है, क्योंकि मुख्यमंत्री अदालत नहीं लगा सकते. वैसे देश में जन अदालत लगती है, जहां ग़ैरक़ानूनी तरीके से इंसाफ दिया जाता है, थप्पड़ मारने से लेकर मौत तक का फरमान सुनाया जाता है और ऐसी जन अदालत देश में नक्सली लगाते हैं. हैरानी की बात यह है कि देश की सबसे ईमानदार पार्टी के पहले कार्यक्रम में ही कई महिलाओं के साथ छेड़छाड़ हुई, वे टीवी चैनलों पर रो-रोकर अपनी व्यथा सुना रही थीं. कई लोगों के फोन गायब हो गए और उन्हें पता नहीं चला. साथ ही कई लोगों के बटुए भी पॉकेटमारों ने गायब कर दिए. फिलहाल इन मामलों में पुलिस ने शिकायत तो ले ली है. इस बीच पार्टी ने लोकसभा चुनाव में हिस्सा लेने का ऐलान किया. साथ ही 26 जनवरी तक एक करोड़ सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा. फॉर्म भरकर सदस्यता, पोस्टकार्ड से सदस्यता, ईमेल से सदस्यता, फेसबुक पर सदस्यता, वेबसाइट पर जाकर सदस्यता, यहां तक कि फोन से मिस्डकॉल मारकर सदस्यता के प्रावधान तैयार किए गए. मीडिया के जरिए बड़े-बड़े लोगों ने आम आदमी पार्टी को ज्वाइन किया. जब आपने सब तरह के लोगों के लिए दरवाजा खोल दिया, तो यह कैसे तय होगा कि आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले लोग भ्रष्ट, बलात्कारी, गुंडे-बदमाश नहीं हैं. पटना से ख़बर आई कि वहां जो व्यक्ति सदस्यता अभियान चला रहा है, वह एक हिस्ट्रीशीटर है और उस पर 24 आपराधिक मामले दर्ज हैं. कहने का मतलब यह है कि लोकसभा चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने के लिए आप ने अच्छे-बुरे और सही-गलत का अंतर ख़त्म कर दिया. इसका खामियाजा आने वाले दिनों में पार्टी को ज़रूर भुगतना पड़ेगा. आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने जब बगावत की, तो हड़कंप मच गया. मीडिया के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि बगावत कर रहे विधायक विनोद कुमार बिन्नी लोकसभा का टिकट मांग रहे थे. वह लालची हैं, स्वार्थी हैं और पहले भी ऐसी हरकत कर चुके हैं, जब वह मंत्री पद मांग रहे थे. फिर पार्टी की तरफ़ से यह भी दलील दी गई कि वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं, कांग्रेस की साजिश का हिस्सा बन गए हैं. कहने का मतलब यह है कि एक साधारण-सा एमएलए थोड़ा नाराज क्या हुआ, पार्टी के महान नेताओं से लेकर सोशल मीडिया पर काम करने वाले आम आदमी पार्टी के वेतनभोगी कार्यकर्ता तक बिन्नी पर ऐसे टूट पड़े, जैसे उसने किसी की हत्या कर दी, दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हो गया. कश्मीर के मुद्दे पर पार्टी फिर बैकफुट पर आ गई. एक टीवी चैनल पर प्रशांत भूषण ने कश्मीर पर विवादास्पद बयान दिया. वह पहले भी कश्मीर पर बयान देकर विवाद खड़ा कर चुके हैं. अब यह समझ के बाहर है कि यह कोई रणनीति है या आदत, लेकिन समय-समय पर वह कश्मीर की बात छेड़कर हंगामा खड़ा कर देते हैं. पहले उन्होंने कश्मीर में रेफेरेंडम की बात की और कहा था कि अगर कश्मीर के लोग भारत से अलग होना चाहते हैं, तो उन्हें अलग होने का अधिकार है. इस बार उन्होंने कहा कि कश्मीर के अंदर सुरक्षा में लगी सेना के लिए रेफेरेंडम होना चाहिए. पार्टी को फिर सफाई देनी पड़ी. लेकिन जो सफाई आई, उसमें भी घालमेल किया गया. लेकिन हैरानी तो तब हुई, जब पार्टी में जेएनयू के प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय को शामिल किया गया. तो अब पार्टी को यह जवाब देना चाहिए कि क्या वह संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु को शहीद एवं निर्दोष इसलिए मानती है, क्योंकि प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु को शहीद और निर्दोष मानते हैं. वह कश्मीर के अलगाववादियों के समर्थक हैं और ट्वीटर के जरिए अलगाववादियों को आपस में लड़ने से मना करते हैं और एकजुट होकर भारत के ख़िलाफ लड़ने की सलाह देते हैं. इसके अलावा, हाल में वह सुर्खियों में तब आए थे, जब पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के मिस्टर फाई के नेटवर्क का खुलासा हुआ था. पता चला कि वह मिस्टर फाई के सेमिनारों में शिरकत करते रहे हैं. इसके अलावा कामरेड कमल मित्र ने अमेरिकी कांग्रेस की कमेटी में गुजरात के दंगों के बारे में यह बताया कि गुजरात में जो हुआ, वह दंगा नहीं, बल्कि जनसंहार था…स्टेट स्पोंसर्ड जेनोसाइड. समझने वाली बात यह है कि आम आदमी पार्टी में शामिल होने के बाद उन्होंने यह भी बयान दिया है कि वह अपने विचारों पर आज भी अडिग हैं. एक तरफ़ कमल मित्र चेनॉय हैं, तो दूसरी तरफ़ कुमार विश्‍वास हैं, जो नरेंद्र मोदी को भगवान शिव की संज्ञा देते हैं. इंटरनेट पर मौजूद तमाम वीडियो में कुमार विश्‍वास कवि सम्मेलनों में अक्सर मोदी की तारीफ़ करते नज़र आते हैं. यह कैसे संभव है कि एक ही पार्टी में कुमार विश्‍वास भी रहें और कमल मित्र चेनॉय भी? ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता फिल्मों को ज़रूरत से ज़्यादा ही सच मान बैठे हैं. चुनाव के दौरान भी इस पार्टी के लोग अनिल कपूर की फिल्म नायक का पोस्टर लोगों को दिखाते थे. कुमार विश्‍वास इस फिल्म का हवाला भी देते थे कि अरविंद केजरीवाल फिल्म नायक के अनिल कपूर की तरह हैं. इसलिए जब सरकार बनी, तो आम आदमी पार्टी के नेता एवं मंत्री बैटमैन और सुपरमैन और हिंदी फिल्म के शहंशाह की तरह रातों में दिल्ली की सड़कों पर निरीक्षण करते नज़र आते हैं. मीडिया और टीवी चैनलों को पहले से बता दिया जाता है कि मंत्री जी आज रात किस वक्त कहां रहेंगे. मंत्रियों के इसी फिल्मी अंदाज की वजह से दिल्ली सरकार के क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती दिल्ली पुलिस से ही उलझ गए. उन्होंने ऐसा ड्रामा किया कि पार्टी की चौतरफ़ा किरकिरी हुई. मंत्री जी को यह भी पता नहीं है कि विदेशी महिलाओं को वेश्या और ड्रग एडिक्ट कहने से पहले थोड़ा संयम ज़रूरी है. वैसे एक जज द्वारा इस मामले की जांच चल रही है, लेकिन सोमनाथ भारती इससे पहले भी एक विवाद में आ चुके हैं. सोमनाथ भारती पेशे से वकील हैं. वह अरविंद केजरीवाल के सारे मुकदमे लड़ते हैं. अब पता नहीं कि यह किस तरह की पारदर्शी और आदर्शवादी राजनीति है, लेकिन आम आदमी पार्टी के लोग इसे पार्टी के अंदर गुटबाजी और भाई-भतीजावाद का संकेत बताते हैं और कहते हैं कि इसी वजह से इन्हें पार्टी का टिकट मिला और बाद में मंत्री भी बने. क़ानून मंत्री बनने के साथ ही उनका झगड़ा अपने सचिव से हो गया. मुद्दा यह था कि मंत्री ने दिल्ली के जजों को मीटिंग के लिए बुलाने के आदेश दे दिए, लेकिन जब सचिव ने बताया कि क़ानून मंत्री को जजों को बुलाने का अधिकार नहीं है, तो वह आगबबूला हो गए. सचिव ने जब शिकायत की और मीडिया में सवाल उठा, तो यह कहा गया कि नए-नए मंत्री बने हैं, उन्हें पता नहीं होगा. लेकिन दूसरा मुद्दा जब सामने आया, तो लोगों के रोंगटे खड़े हो गए. पता चला कि सुबूतों के साथ गंभीर छेड़छाड़ के लिए अदालत क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती को फटकार लगा चुकी है. अरविंद केजरीवाल को यह बताना चाहिए कि क्या वह ऐसे ही लोगों को साथ लेकर ईमानदारी की राजनीति करना चाहते हैं, लेकिन उस वक्त अरविंद केजरीवाल के चेहरे से भी नकाब उतर गया, जब उन्होंने भारती के इस मामले में कोर्ट को दोषी बता दिया. किसी भी मुख्यमंत्री के मुंह से अदालत के बारे में ऐसा बयान निकले, तो यह एक ख़तरनाक संकेत है. पार्टी के अंदर भी अब सवाल उठने लगे हैं. लोग योगेंद्र यादव से नाराज हैं. योगेंद्र यादव जनलोकपाल आंदोलन के दौरान अन्ना के साथ नहीं थे. उनकी पहचान यह थी कि वह 2009 से राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु रहे हैं. कांग्रेस पार्टी ने ही उन्हें यूजीसी का सदस्य बनाया था. जबसे वह पार्टी में आए और जिस तरह से नीति निर्धारण के मुख्य केंद्र बन गए, उससे पुराने लोगों के अंदर घुटन हो रही है. वैसे पार्टी के अंदर वही होता है, जो अरविंद केजरीवाल चाहते हैं. पार्टी से जुड़े कई लोग उन्हें तानाशाह कहते हैं. वह पार्टी के अंदर तीन-चार लोगों की कोटरी के जरिए ़फैसले लेते हैं. दिल्ली में सरकार है, विधायक हैं, लेकिन पार्टी और सरकार के ़फैसले में विधायकों की हिस्सेदारी न के बराबर है. कई लोग दबी जुबान से कहते हैं कि योगेंद्र यादव और दूसरे लोग यदि प्रजातंत्र में इतना ही विश्‍वास रखते हैं, तो पार्टी की 23 एक्जीक्यूटिव समितियों का चयन चुनाव के जरिए क्यों नहीं किया गया? आम आदमी पार्टी के कई लोगों ने कहा कि फिलहाल सबके सामने दिल्ली और लोकसभा की चुनौती है, इसलिए कोई खुलकर विरोध नहीं करना चाहता है, वरना पार्टी में कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा हो सकती है, लेकिन यह पता नहीं था कि ऐसी स्थिति सरकार बनने के ठीक 15 दिनों में ही आ जाएगी. आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने जब बगावत की, तो हड़कंप मच गया. मीडिया के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि बगावत कर रहे विधायक विनोद कुमार बिन्नी लोकसभा का टिकट मांग रहे थे. वह लालची हैं, स्वार्थी हैं और पहले भी ऐसी हरकत कर चुके हैं, जब वह मंत्री पद मांग रहे थे. फिर पार्टी की तरफ़ से यह भी दलील दी गई कि वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं, कांग्रेस की साजिश का हिस्सा बन गए हैं. कहने का मतलब यह है कि एक साधारण-सा एमएलए थोड़ा नाराज क्या हुआ, पार्टी के महान नेताओं से लेकर सोशल मीडिया पर काम करने वाले आम आदमी पार्टी के वेतनभोगी कार्यकर्ता तक बिन्नी पर ऐसे टूट पड़े, जैसे उसने किसी की हत्या कर दी, दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हो गया. जबकि बड़ी आसानी और शालीनता से बिन्नी का मसला सुलझाया जा सकता था. बुद्धि और तजुर्बा किसी यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ाया जा सकता, इसके लिए विवेक होना ज़रूरी है, जिसकी फिलहाल आम आदमी पार्टी में कमी नज़र आ रही है. हिंदुस्तान में ऐसी कौन-सी पार्टी है, जिसमें कोई नेता या विधायक या सांसद ने बगावत न की हो, लेकिन ऐसी किरकिरी किसी पार्टी की नहीं होती. विधायक बिन्नी ने पार्टी के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद की. समझने वाली बात यह है कि बिन्नी ने उन्हीं मुद्दों को उठाया, जिन्हें लेकर दिल्ली के निवासी भी आम आदमी पार्टी को शक की निगाह से देख रहे थे. बिन्नी ने स़िर्फ यही कहा कि अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी में फर्क आ गया है, मैनिफेस्टो में कोई किंतु-परंतु नहीं था, यह सब चालाकी से किया गया है जिन लोगों के घर पर 400 यूनिट से ज़्यादा बिजली और 700 लीटर से ज़्यादा पानी का इस्तेमाल हो रहा है, उनका क्या दोष है? यह दिल्ली की जनता के साथ धोखा है. यह बिल्कुल सच ही है, क्योंकि मुफ्त पानी और बिजली की नीतियों से चंद लोगों को फायदा पहुंचाया गया और ज़्यादातर दिल्ली की जनता खुद को छला महसूस कर रही है. बिन्नी ने अरविंद केजरीवाल से पूछा कि 15 दिनों में जनलोकपाल बिल लाने के वायदे का क्या हुआ, क्योंकि समय बीत जाने के बाद भी जनलोकपाल नहीं आया है. अरविंद केजरीवाल को शायद यही बुरा लग गया. ग़ौरतलब है कि चौथी दुनिया ने चुनाव से पहले ही बता दिया था कि दिल्ली में जनलोकपाल का वायदा एक छलावा है, क्योंकि कोई भी राज्य सरकार जनलोकपाल क़ानून नहीं बना सकती और फिर दिल्ली सरकार की शक्तियां तो वैसे भी दूसरे राज्यों की तुलना में बेहद कम हैं, इसलिए यह संभव नहीं है. विनोद कुमार बिन्नी अपनी पार्टी के नेताओं की ड्रामेबाजी से भी नाराज थे. उन्हें लगता है कि सरकार चलाना और मीडिया के जरिए हंगामा खड़ा करना, दोनों अलग बात हैं. किसी भी ज़िम्मेदार सरकार को ड्रामेबाजी से बचना चाहिए. इसलिए उन्होंने यह खुलासा किया कि अरविंद केजरीवाल के मंत्री रात में दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में दौरा तो करते हैं, लेकिन साथ में मीडिया को बुलाकर लेकर जाते हैं. टीवी कैमरे के सामने वे अधिकारियों को फोन करते हैं और पुलिस से भिड़ जाते हैं. ऐसा करने की वजह समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि मीडिया में सुर्खियां बटोरना होता है, ताकि अगले दिन सुबह-सुबह वे टीवी चैनलों पर दिखें. समस्या यह है कि मीडिया की वजह से लोकप्रिय होने वाली पार्टी को यह लगता है कि टीवी कैमरे के जरिए ही राजनीति संभव है. जबकि हकीकत यह है कि जिन-जिन नेताओं को मीडिया ने बनाया, उन्हें जनता के सामने बेनकाब करने का काम भी इसी मीडिया ने किया. राजनीति में ज़्यादा दिन टिकने वाले नेता मीडिया को बुलाते नहीं, बल्कि मीडिया उनके पीछे चलता है और उन्हें ड्रामेबाजी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती. आम आदमी पार्टी की किरकिरी तबसे ही शुरू हो गई, जबसे सरकार बनी. पार्टी ने कहा था कि चुनाव जीतने के बाद गाड़ी-बंगला नहीं लेंगे, लालबत्ती नहीं लेंगे. हम आम आदमी की तरह ही रहेंगे. आम आदमी पार्टी न तो भाजपा एवं कांग्रेस से समर्थन लेगी और न देगी, लेकिन जैसे ही सरकार बनी, अरविंद केजरीवाल बेनकाब हो गए. आम आदमी पार्टी ने वही सारे काम किए, जिनका वह चुनाव से पहले विरोध कर रही थी. आम आदमी पार्टी, दरअसल, व्यवस्था और राजनीतिक दलों के प्रति लोगों की नाराजगी का फायदा उठा रही है, लेकिन उसके पास लोगों की समस्याओं के निदान का कोई नक्शा नहीं है. समझने वाली बात यह है कि अगर देश के हर राज्य में मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा और मुफ्त चिकित्सा सुविधाओं की मांग को लेकर आंदोलन होने लगें, तो क्या होगा? इतना पैसा कहां से आएगा? देश की आर्थिक स्थिति पर इसका क्या प्रभाव होगा, इसके बारे में कौन सोचेगा? आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव लड़ने वाली है. पार्टी का दावा है कि वह लोकसभा चुनाव में 400 उम्मीदवारों को मैदान में उतारेगी. अब सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल अगर प्रधानमंत्री पद की दौड़ में कूदेंगे, तो दिल्ली का क्या होगा? दूसरी बात यह कि आम आदमी पार्टी को लोकसभा में बहुमत नहीं मिलेगा, इसलिए उन्हें यह बताना होगा कि चुनाव के बाद वह किस पार्टी को साथ देंगे? वह भाजपा के साथ जाएंगे या फिर कांग्रेस के? आम आदमी पार्टी को अपनी नीतियां और विचारधारा भी लोगों के सामने स्पष्टता से रखनी होंगी. सबसे बड़ा सवाल देश की जनता के सामने है कि क्या वह एक ऐसी पार्टी को समर्थन देगी, जिसके पास न विचारधारा है, न नीतियां हैं और यह भी पता नहीं है कि उसका एजेंडा क्या है? कहीं ऐसा न हो कि विधानसभा चुनाव के बाद जिस तरह दिल्ली की जनता ठगी सी महसूस कर रही है, लोकसभा चुनावों के बाद देश की जनता को अफसोस न करना प़डे.